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मैं नदी हूं…एक विस्तृत नदी

Ruchi Shukla
Ruchi Shukla
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मैं नदी हूं….एक विस्तृत नदी….
अपने अस्तित्व के लिए लगातार उमड़ती, घुमड़ती, बहती नदी….और हर नदी की तरह मुझे भी है एक सागर की तलाश….जिसमें समाकर मैं भी हो जाऊं अथाह…अपार….अनहद……..
एक सागर जो सचमुच सागर हो….ना कि केवल सागर होने का स्वांग रचता कोई तालाब, कोई ताल, कोई गड्ढा…..या कोई झरना जो खुद नदी में समाकर अपनी पहचान खो देता है अक्सर….
सफ़र में कई मिले….और सभी ने खुद को सागर बताया….कहा- ‘कि ठहर जाओ, अब और भटकने की ज़रूरत नहीं…मैं ही तो हूं तुम्हारी मंजिल, तुम्हारा सागर’…फिर खुद में समा लेने के दावे किए, जीवनभर संग-संग बहने देने के झूठे-मूठे वादे किए….पर बड़ी-बड़ी बातों में कहां छुपता है मन का ओछापन…..नदी भांप ही लेती है सागर की शक्ल में छुपे तालाबों का मन…
और नदी निकल पड़ी फिर उसी धुन में….उसी जोश से….उसी उन्माद से …कि जैसे पहली बार निकली थी सागर की ख्वाहिश में….वो सागर…जो सचमुच सागर है….असीम …अनंत और…विशाल …..जिसमें खुद समा जाना चाहती है ये नदी….
एक नदी अपने सागर में समाकर ही तो पूरी होती आई है सदियों से….ये ईश्वर का गढ़ा नियम है….नदी को सागर का होने से तनिक भी गुरेज न था, ना है और ना ही रहेगा….बस वो अस्तित्वविहीन होना नहीं चाहती….बहना चाहती है….अपनी ही रौ में…अपनी ताज़गी…अपनी शीतलता….अपनी मोहकता….अपना कलकल करता संगीत….ये सबकुछ अपने सागर को सौंपना चाहती है……पर सागर है कहां…..
आज के दौर में पहचानना मुश्किल है….हर कोई खुद को सागर ही तो कहता है, सागर सा ही दिखता है, पर असल में किसी -किसी नदी को ही मिलता है उसका सागर….वो सागर …जो सचमुच सागर है….
बाकी नदियों का अपना नसीब….कि कौन से तालाब या गड्ढे को अपना अस्तित्व सौंपना पड़े….किसको विस्तार देकर सरकार कहना पड़े….
पर मैं वो नदी नहीं….जो ठहरे बीच कहीं….
तब तक करूंगी इनकार …जब तक नहीं मिल जाता वो विशाल मन वाला मेरा असली हकदार…
क्योंकि….
मैं नदी हूं….एक विस्तृत नदी….8

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