Ruchi Shukla
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तपती धरती, जलता सूरज
आग निकले चांदनी से
दहक रहा मन आदमी का
उठ रही हैं लाल लपटें
नफरतें आजाद सी हैं
और घुटता प्यार मन में
आंखों से अब लहू झरे हैं
और रगों में बहता पानी
कोई किसी का नहीं सगा अब
रिश्ते-नाते महज जुबानी
टूट-फूटकर बिखरे सपने
सभी समेटें अपने-अपने
भरी भीड़ में खड़ा अकेला
ये दुनिया भी एक झमेला
पहली चाल, आखिरी पत्ता
खेल रहे सब रफ्ता-रफ्ता
हार-जीत सब पूर्व सुनिश्चित
बिन खेले मैं हुआ पराजित
इस धरती का खेल अनोखा
हार-जीत सब कोरा धोखा
विधि की विधा विधाता जानें
भूल हुई जाने-अनजाने
लेकिन अब हे नाथ शरण दो
इस सेवक को शीघ्र तरण दो
मृग तृष्णा का अंत करो अब
मेरे भी अब कष्ट हरो सब
तुममें खोकर खुद को पाऊं
माया से मुक्ति तक जाऊं
इच्छाओं का अंत करो प्रभु
इस पापी को संत करो प्रभु
इस जग की हर बात भुला दो
मुझको अपने पास बुला लो
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